नमस्ते! एक गंभीर मुद्दे को उठाने का प्रयास करते हुए प्रस्तुत है नई कविता -
जात
किस जात के हो तुम?
मुझे जवाब नहीं जानना।
मेरा प्रश्न है - किस जात के हो तुम?
चलो रहने दो - अपनी बात करती हूँ।
मैं कायस्थ हूँ, क्षत्रिय - वो जो युद्ध के समय लड़े
और शांति में राज करे।
पर क्या मैने ऐसा कुछ किया?
नहीं पर मेरे जन्म पर ही मेरी जात का निर्णय हो गया था।
उसी प्रकार मेरे घर जो खाना बनाती है उसकी भी।
अंतर करो और राज करो -
इसी विचारधारा से तो हम एक दूसरे को बाँटते हैं।
हिन्दू को मुस्लिम से, मुस्लिम को हिन्दू से लड़ाते हैं।
किसी की जात से उसकी औकात का फैंसला करते हैं।
फिर पूछती हूँ - तुम्हारी जात क्या है?
वो जात नहीं जो तुम्हारे जन्म से तय हो गयी थी,
पर जात तो वही होती है ना!
सर्वोपरी तुम्हारी जात यह है कि तुम इंसान हो।
इसे मत भूलो!