क्या अजब है किताबों की रंगभरी जादुई दुनिया!
जिसमें आप स्वयं को भुला देते हैं या ढूंढ लेते हैं –
किसी पात्र में या लेख में
या लेखक के भावार्थ में, जो उसने समझाया
या(/और) आपने समझा
जो उसने साझा किया
या फिर नहीं - पर आपने समझा।
आप कितनी ही ज़िंदगियां जी लेते हैं और कितनी बार
कभी लेखक(/लेखकों) की, किताब(/किताबों) की।
कभी आप नदी की तरह हर किरदार में बहते हुए
तो कभी एक किरदार में सागर को आत्मसात करते।
और अपनी और लेखक की समझ के अनुसार
कभी लाल तो कभी बैंगनी रंग गहरा पड़ता
आपके मन में सिले किताबों के इंद्रधनुष में!
एक ओर कितनी विस्तृत तो दूसरी ओर कितनी संकुचित है किताबों की दुनिया -
कभी हर ओर फैले हुए छतनार सा
तो कभी स्वयं में समाहित ॐकार सा।
कभी मैं काबुलीवाला के इंतजार में मिनी
तो कभी अतरंगी फलों और सपनों की विक्रेता काबुलीवाला
या फिर कभी उनका आपसी स्नेह।
कभी अमृता प्रीतम की कविताओं की तरह शाश्वत वादा -
मैं तेनु फिर मिलांगी।
तो कभी सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित झांसी की रानी रूपी वीरांगना।
हर इंसान, जीव, भाव, स्थान, रंग के लिए ख़ास जगह है हमारी किताबों में।
तो चंद सुकून के लम्हे फिर बटोरते हैं और चाय की हर चुस्की के साथ इन किताबों में बुने शब्दों के महासागर को चखते हैं।
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